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मानव का उत्सर्जन तंत्र (Human Exceratory system), RBSE, CLASS 10, Science, Chapter 2

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उत्सर्जन (Exceration)

विषय वस्तु

  1. उत्सर्जन (Exceration) की परिभाषा 
  2. उत्सर्जन (Exceration) के आधार पर प्राणियों के प्रकार 
  3. मानव उत्सर्जन (Exceration) तंत्र नामांकित चित्र व सरंचना* 
  4. उत्सर्जन (Exceration) की कार्यिकी व नेफ्रॉन की सरंचना*  
  5. वृक्क की आंतरिक सरंचना  
उत्सर्जन (Exceration) Table Of Contents
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उत्सर्जन (Execration):-

मानव शरीर से हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने की प्रक्रिया को उत्सर्जन (Exceration) कहते हैं। भोजन के पाचन से नाइट्रोजन युक्त अपशिष्ट जैसे अमोनिया, यूरिया, यूरिया अम्ल, क्रिएटिनिन आदि का निर्माण होता है।

उत्सर्जन (Exceration) के आधार पर जीवो का वर्गीकरण:-

अमोनिया उत्सर्जी (Ammonotelic):-

वह जीव जो अमोनिया का उत्सर्जन करते हैं। अमोनिया सर्वाधिक विषाक्त होता है इसलिए इस के उत्सर्जन हेतु सर्वाधिक पानी की आवश्यकता होती है। उदाहरण जलीय कीट, मछलियां, मेंढक का लार्वा।

यूरिया उत्सर्जी (Ureotelic):-

वह जीव जो यूरिया का उत्सर्जन करते है। यूरिया अमोनिया से कम विषैला होता है इसलिए इसके उत्सर्जन हेतु कम पानी की आवश्यकता होती है। उदाहरण स्तनधारी, मेंढक

यूरिकोटेलिक(Urecotelic) :-

वह जीव जो यूरिक अम्ल का उत्सर्जन (Exceration) करते हैं। यूरिक अम्ल सबसे कम विषैला होता है इसलिए इस के उत्सर्जन के लिए सबसे कम पानी की आवश्यकता होती है। 

उदाहरण :- पक्षी, सरीसृप, कीट

विषाक्तता का क्रम :-  *अमोनिया > यूरिया > यूरिक अम्ल
  • मकड़िया – ग्वानिन
  • सीप, घोंघा – अमीनो अम्ल
  • एक कोशिकीय जीव – त्वचा द्वारा विसरण से
  • सीलेंट्रेटा – कोशिका द्वारा
  • प्लेटिहेलमन्थिज –  ज्वाला कोशिका
  • एसकेहेलमन्थिज – रेनेट कोशिका
  • मोलस्का – मूत्र अंग
  • आर्थोपोडा – मेलपिगी काय
  • कशेरुकी – किडनी
  • झींगा – ग्रीनलैंड
  • ऐनेलिडा – नेफ्रीडिया
  • केचुआ – क्लोरेगोगेनन सेल

मानव का उत्सर्जन तंत्र (Human Exceratory system)

वृक्क (Kidney):-

  • संख्या :-  दो
  • रंग :- गुलाबी
  • आकार :- सेम के बीज जैसी
  • भार :- 140 ग्राम से 170 ग्राम
  • स्थिति :- उदर गुहा के नीचे
  • मानव की किडनी पेरीटोनियम झिल्ली के पीछे स्थित हैं जिसे रिट्रो पेरीटोनियम कहते हैं।
  • माप :-  12 × 6 × 3 सेंटीमीटर
  • कार्य :- किडनी रुधिर को फिल्टर करती है जिसे परानिष्यन्द कहते हैं। 

किडनी अम्ल व क्षार का संतुलन बनाती है। किडनी जल तथा लवण का संतुलन बनाती है। किडनी रेनिन हार्मोन का स्त्रावण करती है जो एनजीयोटेन्सीन -1 और एनजीयोटेन्सीन -2 को सक्रिय करती है। यह रक्त वाहिनी में रक्त दाब को बढ़ाने का कार्य करती हैं। परसरणीय क्रियाओं का नियमन करती हैं। किडनी इरिथ्रोपोइटिन हार्मोन का स्राव करती है जो अस्थि मजा में आरबीसी के निर्माण को प्रेरित करती है। किडनी के सबसे बाहरी भाग को रिनल कैप्सूल कहा जाता है। किडनी के सबसे बाह्य भाग को कॉर्टेक्स कहा जाता है। किडनी के आंतरिक भाग को मेडुला कहा जाता है।

मेडुला भाग में त्रिभुज के आकार की रचनाएं पाई जाती है जिसे पिरेमिड्स कहते हैं।

पिरेमिड सूक्ष्म नलिकाओं द्वारा जुड़ा होता है जिसे बर्तिनी के स्तंभ कहा जाता है। बर्तिनी के स्तंभ सूक्ष्म नलिका में बटकर सूक्ष्म नलिका का निर्माण करते हैं जिसे बेलीनाई की नलिका कहा जाता है।

बेलीनाई की नलिका मूत्रवाहिनी में खुलती है तथा मूत्रवाहिनी मूत्र को मूत्राशय में जमा करती है।

नेफ्रॉन (Nephron) :-

एक किडनी में  लगभग 10 लाख जटिल संरचनाए पाई जाती है जिसे नेफ्रॉन (Nephron) कहा जाता है।

नेफ्रॉन किडनी की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई है।

नेफ्रॉन के भाग :-

  1. मेलपीगी काय
  2. पीसीटी (PCT)
  3. हेनले का लूप
  4. डीसीटी (DCT) 
1 मेलपीघी काय :-
इसमें दो भाग आते हैं।

(अ) ग्लौमेरुलस

(ब) बोमेन सम्पूट

(अ) ग्लोमेरुलस:-

रक्तवाहिनीयों के गुच्छे को कहते हैं। ग्लौमेरुलस में रक्त को लाने वाली धमनी को अभिवाही तथा रक्त को ले जाने वाले धमनी को अपवाही धमनी कहा जाता है। अभिवाही धमनी का व्यास अपवाही धमनी से ज्यादा होता है जिसके कारण नेफ्रॉन में रक्त धीमी गति से आता है तथा वापस तेजी से जाता है।

(ब) बोमन संपुट :-

नेफ्रॉन में पाई जाने वाली प्याले नुमा संरचना बोमन संपुट कहलाती है।बोमन संपुट में पोडोसाइट कोशिकाएं पाई जाती हैं जो सूक्ष्मछिद्रों के साथ मिलकर झिल्ली की पारगम्यता को बढ़ाती हैं।

2. पीसीटी (प्रॉक्सिमल कनवर्टेड ट्यूबलस ) :-

बोमन संपुट का अंतिम भाग पीसीटी में खुलता है। इस भाग में सूक्ष्मांकुर अधिक संख्या में पाए जाते हैं जिन्हें ब्रश बॉर्डर कहा जाता है। तथा ये पीसीटी का सतही क्षेत्रफल बढ़ाता है। पीसीटी में सर्वाधिक संख्या में माइटोकॉन्ड्रिया पाए जाते हैं इसलिए पीसीटी से सर्वाधिक पुनः अवशोषण होता है। 

3. हैनले का लूप :-

यह बालों की पिन जैसी दिखाई देने वाली सरंचना है। यह सरल घनाकार उपकला ऊतकों  से निर्मित होती है।

इसके दो भाग हैं –  इसमें सूक्ष्मांकुर नहीं पाए जाते हैं।

(अ) अवरोही (Descending)

(ब) आरोही (Ascending) 

4. दूरस्थ कुंडलित नलिका (D C T) :-

हैनले के लूप का अंतिम भाग डीसीटी में खुलता है। सरल घनाकार उपकला ऊतकों से निर्मित है। संग्राहक नलिका नेफ्रॉन का भाग नहीं है।

मूत्र निर्माण की प्रक्रिया :-

 अभिवाही धमनी ग्लौमेरुलस में रुधिर को लाती है जिससे एक दाब लगता है इस दाब को  ग्लौमेरुलस हाइड्रोस्टेटिक दाब कहा जाता है। तथा इसका मान 70 mm Hg होता है। इस दाब के कारण  ग्लौमेरुलस से प्लाज्मा को छोड़कर शेष भाग छन जाता है। ग्लौमेरुलस में रक्त को निश्यन्द कहा जाता है। तथा बोमन संपुट की गुहाओं में परानिष्यन्द कहा जाता है। तथा इस घटना को परानिष्यन्दन कहा जाता है।

मूत्र निर्माण की प्रक्रिया निम्न चरणों में पूर्ण होती है।

1. चयनात्मक पुनः अवशोषण पीसीटी ( PCT )  के द्वारा :- 

पीसीटी में सर्वाधिक संख्या में माइटोकॉन्ड्रिया पाए जाते हैं जिसके कारण यहां सर्वाधिक पुनः अवशोषण होता है। इस भाग से प्रोटीन, विटामिन, एमिनो एसिड तथा विद्युत अपघटन का पुनः अवशोषण होता है  

2. हेनले के लूप से :-

अवरोही भाग से जल का पुनः अवशोषण तथा आरोही भाग से विद्युत अपघटय का पुनः अवशोषण होता है। 

3. DCT द्वारा :-

इस भाग से विद्युत अपघट्य का पुनः अवशोषण होता है। 

संग्राहक नलिका :-

विभिन्न नेफ्रॉन द्वारा मूत्र इकट्ठा करने का काम करती है। 

मानव मूत्र संगठन :-

90- 92% पानी

0.5% यूरिक अम्ल

सोडियम क्लोराइड, क्रिएटिनिन, यूरिया, अमोनिया, हिप्यूरिक अम्ल

PH – 6.4 (हल्का अम्लीय)

विशिष्ट घनत्व – 1 -1.4 

मानव प्रतिदिन 1 से 1.5 लीटर  मूत्र का त्याग करता है।

मूत्र का संग्रहण:-

पुरुष में 800ml

मादा में 500ml 

मूत्र का पीला रंग यूरोक्रोम वर्णक के कारण। 

मूत्र की विशेष गंध:-

यूरिया को सूक्ष्म जीव अमोनिया में बदल देते हैं।  

मूत्र की विशेष गंध अमोनिया बनने के कारण आती है।

लंबे समय से भूखे व्यक्ति के मूत्र में _सोडियम क्लोराइड_ (NaCl) की मात्रा सर्वाधिक होती है।

गर्भवती महिला अथवा दुग्ध पान कराने वाली महिला के मूत्र में क्रिएटिनिन की मात्रा सर्वाधिक होती है।

सांप, पक्षी व मगरमच्छ में मूत्राशय नहीं पाया जाता है।  

_किडनी प्रतिदिन 180 लीटर रक्त फिल्टर करती है।

_  ग्लौमेरुलस फिल्ट्रेशन रेट (GFR) – 125 ml प्रति मिनट 

विकार:-

1. यूरेमिया :-

मूत्र में यूरिया की उपस्थिति ।मूत्र में यूरिया की ज्यादा मात्रा हाइपर यूरेमिया  तथा मूत्र में यूरिया की कम मात्रा हाइपो यूरेमिया कहलाती है। 

2. ग्लाइकोसुरिया :-

मूत्र में गुलकोज की उपस्थिति । 

3. हीमेचुरिया :- 

मूत्र में हीमोग्लोबिन (रक्त) की उपस्थिति। 

4. प्रोटोन्यूरिया :-

मूत्र में प्रोटीन की उपस्थिति।  प्रोटीन की उपस्थिति। 

5. कीटोन्यूरिया :-

मूत्र में कीटोन की उपस्थिति।  

6. पाईयूरिया :-

मूत्र में मवाद कोशिका की उपस्थिति। 

7. डिशयूरिया :-

मूत्र त्याग के समय दर्द। 

8. सिस्टिट्स :-

मूत्राशय में सूजन। 

9.एल्केपटोन्यूरिया :-

यह एक अनुवांशिक रोग है ।जब हीमोजेंटिक अम्ल वायु के संपर्क में आता है तो एल्केप्टोन का निर्माण हो जाता है जिससे मूत्र का रंग काला हो जाता है। 

10. नेफ्रिट्स :-

जब ग्लौमेरुलस में स्ट्रैप्टॉकोकाई जीवाणुओं का संक्रमण हो जाता है जिससे शरीर में तरल पदार्थों का जमाव हो जाता है जिससे व्यक्ति की टांगे फूल जाती हैं इसे एडिमा कहते हैं। 

11. ओलिगोसूरिया :-

मूत्र निष्कासन की दर का धीमा होना। 

12. किडनी में पथरी :-

कैल्शियम ऑक्सलेट की बनी होती है। पथरी को बाहर निकालने की प्रक्रिया को लिथोट्रिप्सीन कहते हैं। पथरी को बाहर निकालने में होमियो लेजर का उपयोग किया जाता है। 

13. हीमोडायलिसिस :-

जब किडनी कार्य करना बंद कर देती है तो कृत्रिम रूप से शरीर के बाहर रुधिर की सफाई हीमोडायलिसिस कहलाती है।

मशीन का नाम – हीमोडायलाइजर

हीमोडायलिसिस में कृत्रिम धमनियों का उपयोग किया जाता है जिसमें हिपेरिन मिलाया जाता है।हिपेरिन प्रति स्कंदक कारक है। *प्रथम सफल किडनी ट्रांसप्लांट C. मुर्रे ने  4 मार्च, 1954 को किया था।

14. मेलिना :-

मल के साथ रक्त आना।

15. एपिस्टैसिस :-

नाक से रक्त का स्राव (नकसीर) 

16. पोलिडिप्सिया :- 

बार-बार प्यास लगना । 

17. पॉलिफेजिया :-

बार बार भूख लगना।

18.  पोली यूरिया :-

बार-बार मूत्र आना।


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