आर. एच. कारक (Rh Factor)
आर एच (रीसस) कारक करीब 417 अमीनो अम्लों का एक प्रोटीन होता है जिसकी खोज मकाका रीसस (Macaca rhesus) नाम के बंदर में की गई थी।
यह प्रोटीन मानव की रक्त कणिकाओं की सतह पर भी पाई जाती है।
मानव में पांच प्रकार के आर० एच० कारक पाए जाते हैं –
Rh. D, Rh. E, Rh. e, Rh. C और Rh. c
विश्व में करीब 85% मानव आबादी आर०एच० धनात्मक (RH positive) तथा 15% आर० एच० ऋणात्मक(RH Negative) लोगों की है।
सभी आर० एच० (RH) कारकों में Rh. D सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सर्वाधिक प्रतिरक्षाजनी (immunogenic) है।
रक्तदान के समय ना केवल रक्त समूह का वरन आर० एच० कारक का मिलान भी आवश्यक है।
आर० एच० बेजोड़ता के कारण ही रक्तदान के समय रक्त लयनता का भय रहता है। गर्भरक्ताणुकोरक्ता का भी यही कारण है।
गर्भरक्ताणुकोरक्ता (Erythroblastosis Foetalis) –
गर्भावस्था के दौरान यदि मां का रक्त आर०एच० ऋणात्मक (RH Negative) हो तथा गर्भस्थ शिशु का रक्त आर० एच० धनात्मक (RH positive) हो तब प्रसव के दौरान विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। प्रथम प्रसव के समय माता भ्रूण का रक्त आपस में मिल जाता है। इस कारण माता में आर० एच० (RH) प्रतिरक्षी का निर्माण होता है। प्रथम शिशु का जन्म सामान्य रूप से होता है। द्वितीय गर्भावस्था में भी यदि शिशु का आर०एच० धनात्मक (RH Positive) हो तो पेचिदगी उत्पन्न हो सकती है। माता के शरीर में बने आर एच (RH) प्रतिरक्षी भ्रूण के रक्त में मौजूद आर एच कारकों से प्रतिक्रिया करते हैं। रुधिर समूहन विधि द्वारा यह प्रतिरक्षी लाल रक्त कोशिकाओं को नष्ट कर रुधिर लयनता उत्पन्न करते हैं। इस कारण माता के गर्भ में भ्रूण की मृत्यु तक हो जाती है। यदि शिशु जीवित रहता तो वह अत्यंत कमजोर तथा हेपेटाइटिस से ग्रसित होता है। इस रोग को गर्भरक्ताणुकोरक्ता कहा जाता है।
इस रोग के उपचार हेतु प्रथम प्रसव के 24 घंटों के भीतर माता को प्रति IgG प्रतिरक्षियों का टीका लगाया जाता है। इन्हें रोहगम प्रतिरक्षी कहा जाता है। यह प्रतिरक्षी माता के रक्त में मिश्रित भ्रूण की आर एच धनात्मक (RH Positive) रक्त कोशिकाओं का विनाश कर माता के शरीर में प्रतिरक्षी उत्पन्न होने से रोकती हैं। कई बार इस रोग के उपचार के लिए शिशु का संपूर्ण रक्त रक्ताधान द्वारा बदला जाता है।
रक्ताधान (Blood Transfusion) –
सर्वप्रथम रक्ताधान 15 जून 1667 को फ्रांस के चिकित्सक डॉक्टर जीन बेपटिस्ट डेनिश द्वारा संपादित किया गया।
रक्ताधान के द्वारा कई गंभीर बीमारियों से बचा जा सकता है। रक्त आधान की प्रक्रिया वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसे किसी चिकित्सक के निरीक्षण में किया जाता है। इसमें रक्त विशेष प्रकार की निर्ज़मीकृत थक्कारोधी युक्त थैलियों में संग्रहण और फिर आधान किया जाता है।
रक्ताधान के दौरान बरती जाने वाली सावधानिया
- दाता व रोगी के रक्त में ए बी ओ (ABO) प्रतिजन का मिलान ।
- दोनों के रक्त में आर एच कारक (Rh Factor) का मिलान ।
- आधान के दौरान यह ध्यान देना आवश्यक है कि रोगी को निम्न में से कोई रोग नहीं हो एच०आई०वी०- 1,एच०आई०वी० 2, htlv-1 एच० टी० एल० वी०- 2 हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइटिस सी, क्रूएट्ज्फेल्ड्ट – जैकब रोग आदि।
- रक्त को संदूषण से बचाते हुए प्रेषित भंडारण करना
रुधिर वर्ग का अनुवांशिक महत्व (Significance of Blood Group Heredity)
रुधिर वर्ग की आनुवंशिकता के कई अनुप्रयोग हैं। इसका उपयोग मुख्य रूप से पैतृकता संबंधी विवादों को हल करने में, सफल रक्तदान कराने में, नवजात शिशुओं में रुधिर लयनता तथा आनुवंशिक रोगों जैसे हीमोफीलिया आदि का इलाज करने में उपयोग किया जाता है।
अंगदान व देहदान (Organ Donation and Body Donation)
भारत सरकार हर वर्ष 13 अगस्त का दिन अंगदान दिवस के रूप में मनाती है।
एक निष्प्राण देह से करीब 50 जरूरतमंद लोगों की मदद की जा सकती है।
बच्चे से लेकर 90 वर्ष तक का बुजुर्ग भी अंग दान या देह दान करने में सक्षम है।
भारत में अंगदान करने वालों की संख्या प्रति दस लाख व्यक्तियों में 0.8 है जबकि विकसित देशों में यह है 10 से 30 है।
समाज के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति इस कुलीन कृत्य के लिए आगे आए हैं। जिनमें साहित्यकार डॉ विष्णु प्रभाकर, पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री श्री ज्योतिबसु, प्रख्यात समाजसेवी श्री नाना देशमुख, साध्वी ऋतंभरा, क्रिकेटर गौतम गंभीर आदि शामिल हैं।
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